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मंगलवार, 29 मई 2012

जब नयनों में तुम ही तुम थे





जब नयनों में तुम ही तुम थे, वो उन्मादी क्षण  पुनः जिला दे
उसी  बावरेपन  की  हाला का , मुझको  दो घूँट पिला दे




जब आती जाती मस्त हवा से, हाल तेरा हम सुनते थे 
जब तुम्हें याद कर करके हम ,सपने कुछ मन में बुनते थे
जब सो जाता था हर कोई ,हम रात में तारे गिनते थे

अब उसी तरह से रातों में, फिर से तारे गिनना सिखला दे
उसी  बावरेपन  की  हाला का , मुझको  दो  घूँट पिला दे



इक दूजे को पाने के लिये, सर्वस्व मिटाया था हमने
इक दूजे का प्रेमी बनकर ,जब नाम कमाया था हमने
है प्रेम जगत का अन्तिम सच, सबको बतलाया था हमने

आ दुसह विरह के इस क्षण में, तू आज प्रणय का रंग मिला दे
उसी  बावरेपन  की  हाला  का ,  मुझको  दो  घूँट पिला दे



ये प्रेमी का सौभाग्य है कि, वो पड़ा प्रेम के फेरे में
पंछी ढूँढ़े है तेरी आहट, फिर से नीड़ बसेरे में
तस्वीर ना गुम होने पाये ,इस फैले हुए अंधेरे में

जो करे तिमिर को छिन्न-भिन्न ,वो प्रेम पूर्णिमा आज बुला दे
उसी  बावरेपन  की  हाला  का ,  मुझको  दो घूँट पिला दे


 

गुरुवार, 24 मई 2012

बात बेवक़्त बताने की वजह तू जाने




          रोज  इक आस जगाने की वजह तू जाने
बात बेवक़्त बताने की वजह तू जाने

गम की सरगम से जो, बज सकती है ये शहनाई

फिर नये साज़ दिखाने की वजह तू जाने

हम तो हर रोज़ ही ,बिन मोल बिका करते हैं
आज बाज़ार में लाने की वजह तू जाने

है शिकायत तुझे ,ख्वाबों में जीने वालों से
खुलती आँखों  को सुलाने की वजह तू जाने

यूँ तो कल भी है ,दरख़्तों को धूप में जलना

फिर घटा बनके रिझाने की वजह तू जाने

चाँद तकना ही ,बना देगा हमें ग़र मुज़रिम
खिड़कियाँ घर में लगाने की वजह तू जाने

सोमवार, 21 मई 2012

अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल











(उस परमपिता को समर्पित , मैं जिसका अंश था। इस संसार के मायाजाल में आकर मैने जिसे भुला दिया था। पर ये उम्मीद ज़रूर रखता हूँ कि मैं अधम एक दिन उसमें विलीन हो जाऊँगा और वो तब भी स्निग्ध और धवल रहेगा।)
"एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जितीन्दोः किरणेष्विवांकः"


            अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल

 तुम नैन मूँदे हो खड़े
हम घोर दुविधा में पड़े
अवसाद ले कुण्ठित रहें
या बात कुछ आगे बढ़े 

तू  ही बता दे प्रीत की  , कैसे भला होगी पहल  ?
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल


सब  ज्ञात तुझको मर्म हैं
दूषित मेरे सब कर्म हैं
सब भाँति पातक में सने
ये अस्थि-मज्जा-चर्म हैं

लाऊँ कहाँ से मैं भला ?  सेवा ,तपस्या ,पुण्यबल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल

जग भ्रन्तियों का जाल है
उलझा मनुज कंकाल है
शर काम-धनु से आ लगा
अब वाणबिद्ध मराल है

संसार से आहत , तेरे सान्निध्य  से भी बेदख़ल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल

हे देव ! अब उपकार कर
मुझ हीन को स्वीकार कर
बन विधु बहा दे ज्योत्सना
ये कलंक अंगीकार कर

छुप जाये सागर क्षीर में ,खारा मेरा ये अश्रुजल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल


रविवार, 20 मई 2012

तेरे हिस्से का गंगाजल



    
जीवन पथ है ऊबड़ खाबड़ , पर राहगीर तू चलता चल
डर कर मग की बाधाओं से ,मत करना अपने नयन सजल
इन राहों में विष का प्याला भी, तुझको पीना पड़ जाये 
तो मान यही तू महाकाल बनकर , जगहित में पिये गरल 
बस हँसकर साथी पी लेना , तू इसे समझकर गंगाजल


वैसे तो चाह यही सबकी, कुछ स्वप्न सजें कोमल कोमल
लेकिन भूचाल हिला देता, सपनों में कल्पित सभी महल
कड़वे यथार्थ का काँटा तेरे, पैरों में जो गड़ जाये तो
समझ कोई कड़वी सच्चाई , पग चुम्बन को हुई विकल
जीवन का कड़वा घूँट यही, तेरे हिस्से का गंगाजल


दो दिन से ज्यादा नहीं टिकेंगे रास रंग के झूठे पल
दुख ही मनुष्य की सही परीक्षा, किसमें कितना धैर्य अटल
इस रंगभूमि में दुख का कोई,   लम्हा जीना पड़ जाये
तो समझ तराजू पर तोले , तुझको विपन्नता का ये पल
तेरा पलड़ा भारी करता है, आज कण्ठ में गंगाजल 


    है शूरवीर खग कौन ? दिखे, जब हो जंगल में उथल पुथल 
  जो नीड़ बचाये लड़ लड़ के , झन्झावातों को करे विफल 
जब जब अभिमानी अम्बर से अंगार गिरे, पतझड़ आये 
तो मान डराने को तुझको ,बहुरुपिये आते भेष बदल
थक हार कहें जो ,तूने भी क्या खूब पिया है गंगाजल



आँख मिचौली



 
दिखती,छिपती और थिरकती ,लेकर पीर ,जश्न की टोली
रोज रोज मुस्कान खेलती , आँसू के संग आँख मिचौली

ये क्यों करती ऐसा सुन ,यह तुझे जानना है आवश्यक
सुख दुख दोनो बने रहेंगे, है अस्तित्व जगत का जब तक
मौका मिलने पर दोनो ही , करेंगे तेरे साथ ठिठोली
इसीलिये मुस्कान खेलती , आँसू के संग आँख मिचौली


कभी उजाले आशाओं के ,कभी मिलेंगे घुप्प अँधेरे
जीवन की इस समर भूमि में, योद्धा सुन माथे पर तेरे
कभी चिता कि राख लगेगी, कभी सजेगी कुमकुम रोली
इसीलिये मुस्कान खेलती , आँसू के संग आँख मिचौली


दिखकर छिपकर सीख दे रही, राही तुझे अडिग रहने की
ग़म आते हैं तो आने दे आदत डाल इन्हें सहने की
एक भाव से मना सके तू ,विकट मुहर्रम प्यारी होली
इसीलिये मुस्कान खेलती, आँसू के संग आँख मिचौली


अति सबकी ही है दुखदायी, हो कोमलता या कठोरता
पाँव छिले तो कोस रहा , पथरीले पथ को आज सिसकता
सोच यहीं पर धँस जाता तू , यदि हो जाती मिट्टी पोली
इसीलिये मुस्कान खेलती , आँसू के संग आँख मिचौली


जीवन बने जुआ इकतरफा , तब क्यों खेले दाव जुआड़ी
मज़ा खेल में आये जब हो , निर्णय से अनजान खिलाड़ी
रंग हार का रंग जीत का , मिले बने कोई रंगोली
इसीलिये मुस्कान खेलती , आँसू के संग आँख मिचौली

शनिवार, 19 मई 2012

इतना ही बहुत है



  
हैं क​ई मेहमां नये , मेरी तरफ़ मत देख साकी
मैकदे से अब हमें ,दो घूँट मिलना ही बहुत है

वक्त को शायद उदासी ,इस कदर कुछ भा गयी है
बस बदलियाँ घिर रही हैं,रात काली आ गयी है
चाँदनी की चादरों का, ज़िक्र करके क्या मिलेगा ?
छिप गया है चाँद अब ,जुगनू का जलना ही बहुत है

 क्या लुटायेगा जुए में ,जब हैं तेरे हाथ खाली
 अब मरण के पर्व में ,क्यों याद आती है दिवाली
मरघटों में क्या करें ,बातें विकल्पों की, समझ लो
दीपमाला की जगह ,अर्थी का जलना ही बहुत है

एक पल उल्लास का है ,अनगिनत अवसाद के क्षण
पापहन्ता राम विस्मित , जब दिखे हर ओर रावण
पुण्य पातक पर बहस ,अब छोड़ भी दो,कल करेंगे
इस दशहरे में किसी पुतले का जलना ही बहुत है

यह नहीं मधुमास ,पतझड़ का दिवस अब आ चुका है
छोड़कर निस्प्राण उपवन ,जबकि मधुकर जा चुका है
रंग खुश्बू की कहानी  ,लग रही है बेसबब अब
डालियों पर इक बनैला , फूल खिलना ही बहुत है

हैं क​ई मेहमां नये , मेरी तरफ़ मत देख साकी
मैकदे से अब हमें ,दो घूँट मिलना ही बहुत है








बुधवार, 16 मई 2012

मैं ठहरी अदनी सी एक नदिया





  मैं ठहरी अदनी  सी एक दरिया,  तू है समन्दर कहाँ पता था ?
हुए कभी हमकिनार तो तुम ,  चले हमें दरकिनार करके 

    तू इतना गहरा कि, दिल में क्या है ,  तेरे मुझे ये कहाँ खबर थी
       मैं तेरी जानिब निकल पड़ी थी, तमाम 
अडचन को पार करके
 मिलोगे कैसे ? कि जब हमारी ,   किस्मत खानाबदोश राहें 
     अधूरी हसरत मचल रही है ,  हमारे दिल में गुबार बनके 

  नहीं है मुमकिन तेरे लिये भी,  तटों की चौखट को लाँघ पाना,
  तभी तो उठती है बेकली  ये  ,  तुम्हारे सीने में ज्वार बनके