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शनिवार, 2 जून 2012

खण्डहरों का मालिक बनकर



पाकर पीड़ा का पुरस्कार ,मन ये कहकर मुस्काया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी, हाथ बहुत कुछ आया है



सच में है वो जीवट का धनी,जो आँसू पीकर हँसता है
टूटी आशाओं के मलबे में ,जिसका सपना बसता है
जो डरा रहा वह भंगुर है,बस वही यहाँ फौलाद बना
जो लौह हक़ीकत की ज्वाला में, अच्छी तरह झुलसता है

अवसादों के गलियारों में ,हमने खुद को समझाया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी, हाथ बहुत कुछ आया है
 


होती है हर चौराहे पर ,नीलामी सुख दुख की हर दिन
होता हर दिन सागर मन्थन ,पर अमृत मिलना बड़ा कठिन 
मिल भी जाता अमरत्व अगर ,वेदना बहाकर ले जाता
दुख  नाशवान का आभूषण , नीरस है जीवन पीड़ा बिन 

ये क्या कम है ?जो मधुर हलाहल का प्रसाद मिल पाया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी ,हाथ बहुत कुछ आया है



ये दुपहरिया का प्रखर सूर्य ,विश्रान्त हुआ ही ढलता है
ये चक्र निराशा प्रत्याशा का, हरदम ही तो चलता है
तब व्यथा छोड़कर अपनाऊँ वैभव ,विलासिता कुटिल बनूँ?
ध्वंसावशेष के प्रहरी को ,इतना तो तमगा मिलता है

अपने कंधे पर अपना ही शव, इसने कभी उठाया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी ,हाथ बहुत कुछ आया है