(भक्त जब अपने उपास्य के प्रेम में अपनी सुध बुध बिसरा देता है,
तब वो दीवाना कहलाने लगता है।असल में ये दीवानापन पराकाष्ठा है- निष्ठा की , भक्ति की, साधना की,
समर्पण की।)
धर्म अगर है अलग प्रेम से, तब क्यों करूँ निरर्थक चिन्तन
धर्म विमुख हो जी जाऊं, पर प्रेम विमुख जीवन क्या जीवन
लोकविमुख हो सूर्यमुखी, जब कभी सूर्य की ओर मुड़ा है
तभी मदरसे मे हमने ,दीवानेपन का सबक पढ़ा है
विचलित ना कर सकता ,दुष्कर मार्ग उपासक दीवाने को
उद्यत जो अपने उपास्य पर ,प्राण निछावर कर जाने को
कर प्रदक्षिणा दीपक की ,जिस जगह पतंगा मरा पड़ा है
उसी मदरसे में हमने दीवानेपन का सबक पढ़ा है
दीवाने के नयन तपस्वी ,थके ना कभी प्रतीक्षा करके
प्राप्य अप्राप्य कहां वो समझे ,प्रेम पिपासा में अब पड़के
पाने को जल ,मरुथल में ,जब जब दीवाना मृग दौड़ा है
तभी मदरसे में हमने ,दीवानेपन का सबक पढ़ा है
दीवानापन दिखे है मुझको ,सेनानी के कटे मुण्ड में
मातृभूमि का कर वन्दन ,जो प्राण चढ़ाये हवन कुण्ड में
बलिवेदी पर वीर सुतों का ,जब जब शोणित रक्त चढ़ा है
तभी मदरसे में हमने ,दीवानेपन का सबक पढ़ा है
उजियारे पखवारे में ज्यों ,चन्दा का आकार है बढ़ता
प्रेम डगर पर कदम दर कदम ,दीवाने का रूप निखरता
जला स्वयं को प्रेम अग्नि में ,जब जब कुन्दन चमक पड़ा है
तभी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
एक रंग दे रहा दुहाई ,रंगों के इस विपुल झुण्ड में
नीरस उसे लगे जीवन ,पाखण्डी पण्डित के त्रिपुण्ड में