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बुधवार, 1 अगस्त 2012
रविवार, 8 जुलाई 2012
उसी मदरसे में हमने - भाग 1
(ये मेरी पहली रचना थी। "उसी मदरसे में हमने दीवानेपन का सबक पढ़ा है " सुनने में थोड़ा अजीब लगता होगा। पर असल में ये दीवानापन पराकाष्ठा है- निष्ठा की , भक्ति की, साधना की, समर्पण की। भक्त जब अपने उपास्य के प्रेम में अपनी सुध बुध बिसरा देता है, तब वो दीवाना कहलाने लगता है। इसी दीवानेपन को तलाशने की कोशिश की है मैने-प्रकृति में, संस्कृति में,भक्ति में। आशा है आपको पसन्द आयेगी।)
मतवाला मौलवी जहाँ पर, अलबेला शागिर्द खड़ा है
उसी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
इन्द्रधनुष की चादर ओढ़े ,जब नभ का मुखड़ा खिल आया
प्रेमी के सम्मुख धरती ने ,घूंघट को तब तनिक उठाया
अनुरागी वसुधा पर जब -जब, हरीतिमा का रंग चढ़ा है
तभी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
अविचल सिन्धु साधना का ,या मतवालेपन का यह निर्झर
कर आया है पार युगों को ,कालिदास की कविता बनकर
लेकर प्रेमी का संदेशा , मेघदूत जब कभी उड़ा है
तभी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
अल्हड़पन, दीवानापन, निष्ठा या भक्ति कहो तुम इसको
साधक जिसे साधना या फिर फक्कड़ कहे फक्कड़ी जिसको
जिस बाजार में मस्त कबीरा,अपना ही घर फूँक खड़ा है
उसी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
मुझे लगा दीवाना योगी, बैठा था जो भस्म रमाकर
विह्वल हो जो नाची मीरा, श्याम रंग ओढ़नी रंगाकर
श्याम सलोना उसका नटवर, लिये बाँसुरी जहाँ खड़ा है
उसी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
आत्मार्पण करने जगती में ,जब कोई दीवाना आये
चिर अकाट्य इस प्रेमपाश में, ईश्वर भी सहर्ष बंध जाये
जूठे बेर खिलाकर प्रभु को ,जहाँ प्रेम का मान बढ़ा है
उसी मदरसे में हमने, दीवानेपन का सबक पढ़ा है
दीवाने बलिदानव्रती को ,मोह नही निज जीवन का है
हर्षित होकर जीवन वारूँ, अवसर ना ये क्रन्दन का है
हो जाये बलिदान चन्द्र पर ,जिद पर जहाँ चकोर अड़ा है
उसी मदरसे में हमने , दीवानेपन का सबक पढ़ा है
ज्ञान-भक्ति के इस विवाद में, विजय सदैव भक्ति की होगी
ज्ञान अपूर्ण, भक्ति है पूरी, कहता यही प्रेम का योगी
शुष्क ज्ञान से उद्धव के, गोपी का निश्छल प्रेम लड़ा है
तभी मदरसे में हमने , दीवानेपन का सबक पढ़ा है
शनिवार, 2 जून 2012
खण्डहरों का मालिक बनकर
पाकर पीड़ा का पुरस्कार ,मन ये कहकर मुस्काया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी, हाथ बहुत कुछ आया है
सच में है वो जीवट का धनी,जो आँसू पीकर हँसता है
टूटी आशाओं के मलबे में ,जिसका सपना बसता है
जो डरा रहा वह भंगुर है,बस वही यहाँ फौलाद बना
जो लौह हक़ीकत की ज्वाला में, अच्छी तरह झुलसता है
अवसादों के गलियारों में ,हमने खुद को समझाया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी, हाथ बहुत कुछ आया है
होती है हर चौराहे पर ,नीलामी सुख दुख की हर दिन
होता हर दिन सागर मन्थन ,पर अमृत मिलना बड़ा कठिन
मिल भी जाता अमरत्व अगर ,वेदना बहाकर ले जाता
दुख नाशवान का आभूषण , नीरस है जीवन पीड़ा बिन
ये क्या कम है ?जो मधुर हलाहल का प्रसाद मिल पाया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी ,हाथ बहुत कुछ आया है
ये दुपहरिया का प्रखर सूर्य ,विश्रान्त हुआ ही ढलता है
ये चक्र निराशा प्रत्याशा का, हरदम ही तो चलता है
तब व्यथा छोड़कर अपनाऊँ वैभव ,विलासिता कुटिल बनूँ?
ध्वंसावशेष के प्रहरी को ,इतना तो तमगा मिलता है
अपने कंधे पर अपना ही शव, इसने कभी उठाया है
खण्डहरों का मालिक बनकर भी ,हाथ बहुत कुछ आया है
मंगलवार, 29 मई 2012
जब नयनों में तुम ही तुम थे
जब नयनों में तुम ही तुम थे, वो उन्मादी क्षण पुनः जिला दे
उसी बावरेपन की हाला का , मुझको दो घूँट पिला दे
जब आती जाती मस्त हवा से, हाल तेरा हम सुनते थे
जब तुम्हें याद कर करके हम ,सपने कुछ मन में बुनते थे
जब सो जाता था हर कोई ,हम रात में तारे गिनते थे
अब उसी तरह से रातों में, फिर से तारे गिनना सिखला दे
उसी बावरेपन की हाला का , मुझको दो घूँट पिला दे
इक दूजे को पाने के लिये, सर्वस्व मिटाया था हमने
इक दूजे का प्रेमी बनकर ,जब नाम कमाया था हमने
है प्रेम जगत का अन्तिम सच, सबको बतलाया था हमने
आ दुसह विरह के इस क्षण में, तू आज प्रणय का रंग मिला दे
उसी बावरेपन की हाला का , मुझको दो घूँट पिला दे
ये प्रेमी का सौभाग्य है कि, वो पड़ा प्रेम के फेरे में
पंछी ढूँढ़े है तेरी आहट, फिर से नीड़ बसेरे में
तस्वीर ना गुम होने पाये ,इस फैले हुए अंधेरे में
जो करे तिमिर को छिन्न-भिन्न ,वो प्रेम पूर्णिमा आज बुला दे
उसी बावरेपन की हाला का , मुझको दो घूँट पिला दे
गुरुवार, 24 मई 2012
बात बेवक़्त बताने की वजह तू जाने
रोज इक आस जगाने की वजह तू जाने
बात बेवक़्त बताने की वजह तू जाने
गम की सरगम से जो, बज सकती है ये शहनाई
फिर नये साज़ दिखाने की वजह तू जाने
हम तो हर रोज़ ही ,बिन मोल बिका करते हैं
आज बाज़ार में लाने की वजह तू जाने
है शिकायत तुझे ,ख्वाबों में जीने वालों से
खुलती आँखों को सुलाने की वजह तू जाने
यूँ तो कल भी है ,दरख़्तों को धूप में जलना
फिर घटा बनके रिझाने की वजह तू जाने
चाँद तकना ही ,बना देगा हमें ग़र मुज़रिम
खिड़कियाँ घर में लगाने की वजह तू जाने
बात बेवक़्त बताने की वजह तू जाने
गम की सरगम से जो, बज सकती है ये शहनाई
फिर नये साज़ दिखाने की वजह तू जाने
हम तो हर रोज़ ही ,बिन मोल बिका करते हैं
आज बाज़ार में लाने की वजह तू जाने
है शिकायत तुझे ,ख्वाबों में जीने वालों से
खुलती आँखों को सुलाने की वजह तू जाने
यूँ तो कल भी है ,दरख़्तों को धूप में जलना
फिर घटा बनके रिझाने की वजह तू जाने
चाँद तकना ही ,बना देगा हमें ग़र मुज़रिम
खिड़कियाँ घर में लगाने की वजह तू जाने
सोमवार, 21 मई 2012
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
(उस परमपिता को समर्पित , मैं जिसका अंश था। इस संसार के मायाजाल में आकर मैने जिसे भुला दिया था। पर ये उम्मीद ज़रूर रखता हूँ कि मैं अधम एक दिन उसमें विलीन हो जाऊँगा और वो तब भी स्निग्ध और धवल रहेगा।)
"एको हि दोषो गुणसन्निपाते निमज्जितीन्दोः किरणेष्विवांकः"
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
तुम नैन मूँदे हो खड़े
हम घोर दुविधा में पड़े
अवसाद ले कुण्ठित रहें
या बात कुछ आगे बढ़े
तू ही बता दे प्रीत की , कैसे भला होगी पहल ?
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
सब ज्ञात तुझको मर्म हैं
दूषित मेरे सब कर्म हैं
सब भाँति पातक में सने
ये अस्थि-मज्जा-चर्म हैं
लाऊँ कहाँ से मैं भला ? सेवा ,तपस्या ,पुण्यबल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
जग भ्रन्तियों का जाल है
उलझा मनुज कंकाल है
शर काम-धनु से आ लगा
अब वाणबिद्ध मराल है
संसार से आहत , तेरे सान्निध्य से भी बेदख़ल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
हे देव ! अब उपकार कर
मुझ हीन को स्वीकार कर
बन विधु बहा दे ज्योत्सना
ये कलंक अंगीकार कर
छुप जाये सागर क्षीर में ,खारा मेरा ये अश्रुजल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
सब ज्ञात तुझको मर्म हैं
दूषित मेरे सब कर्म हैं
सब भाँति पातक में सने
ये अस्थि-मज्जा-चर्म हैं
लाऊँ कहाँ से मैं भला ? सेवा ,तपस्या ,पुण्यबल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
जग भ्रन्तियों का जाल है
उलझा मनुज कंकाल है
शर काम-धनु से आ लगा
अब वाणबिद्ध मराल है
संसार से आहत , तेरे सान्निध्य से भी बेदख़ल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
हे देव ! अब उपकार कर
मुझ हीन को स्वीकार कर
बन विधु बहा दे ज्योत्सना
ये कलंक अंगीकार कर
छुप जाये सागर क्षीर में ,खारा मेरा ये अश्रुजल
अब क्या तुझे अर्पण करूँ ? तू है सकल, मैं हूँ विकल
रविवार, 20 मई 2012
तेरे हिस्से का गंगाजल
जीवन पथ है ऊबड़ खाबड़ , पर राहगीर तू चलता चल
डर कर मग की बाधाओं से ,मत करना अपने नयन सजल
इन राहों में विष का प्याला भी,
तुझको पीना पड़ जाये
तो मान यही तू महाकाल बनकर , जगहित में पिये गरल
बस हँसकर साथी पी लेना , तू इसे समझकर गंगाजल
वैसे तो चाह यही सबकी, कुछ स्वप्न सजें कोमल कोमल
लेकिन भूचाल हिला देता, सपनों में कल्पित सभी महल
कड़वे यथार्थ का काँटा तेरे, पैरों में जो गड़ जाये तो
समझ कोई कड़वी सच्चाई , पग चुम्बन को हुई विकल
जीवन का कड़वा घूँट यही, तेरे हिस्से का गंगाजल
दो दिन से ज्यादा नहीं टिकेंगे , रास रंग के झूठे
पल
दुख ही मनुष्य की सही परीक्षा,
किसमें कितना धैर्य अटल
इस रंगभूमि में दुख का कोई, लम्हा जीना पड़
जाये
तो समझ तराजू पर तोले , तुझको विपन्नता का ये पल
तेरा पलड़ा भारी करता है, आज कण्ठ में गंगाजल
है शूरवीर खग कौन ? दिखे, जब हो जंगल में उथल पुथल
जो नीड़ बचाये लड़ लड़ के , झन्झावातों को करे विफल
जब जब अभिमानी अम्बर से अंगार गिरे, पतझड़ आये
तो मान डराने को तुझको ,बहुरुपिये आते भेष बदल
थक हार कहें जो ,तूने भी क्या खूब पिया है गंगाजल
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